22/07/2016

" वसन्त और तुम "

यह कुसुम पवन सब बार - बार,
उन चरणों को छू जायें हैं ।
नव रस का जो मिथ्याभिमान,
नतमस्तक सम (सामने ) हो जाए है ।।

जब चलती हैं वो नदियों में,
नदियाँ भी हिलोरे खाएँ हैं ।
जब उतरें वो सागर में तो,
वह चरण चूमने आये है ।।

वन, उपवन की क्या बात कहें,
जो स्वयं ही आश लगाए हैं ।
वह कोमल - कोमल तृण जो हैं,
न छूने से मुरझाए हैं ।।

मुखड़ा उनका इतना सुन्दर,
कि चाँद भी शीश झुकाए है ।
जल, थल, नभ सब गर्व करते,
मुखड़े का दर्शन पाये हैं ।।

हैं कोमल, मधुर अधर उनके,
मधुशाला सी ढरकाए हैं ।
जब निकले हैं बाहर को वो,
स्वागत में बारिश आए है ।।

मीठी इतनी वाणी उनकी,
कि कोयल भी ललचाए है ।
उस वाणी के श्रवणातुर जन,
अरसिक रसिक हो जाए हैं ।।

हैं कपोल कोमल उनके,
मानो की कमल समाये हैं ।
हैं आज हमारे सामने वो,
गालों पे लालिमा लाए हैं ।।

है मधुशाला उन नयनों में,
जिनको देखे ललचाए हैं ।
हैं मृगनयनी उनकी आँखें,
उनमें ही प्राण समाएह हैं ।।

बालों की क्या बातें करना,
जो रातरानि महकाए हैं ।
छूने में हाँथ गर्व करता ,
सूँघने पे वो इठलाये हैं ।।

है सुमेरु - स्तन उनका,
हम देख - देख हर्षाए हैं ।
हैं शर्मीली इतनी वो कि,
कुच पे वे हाँथ लगाये हैं ।।

है शर्म, हया इतनी उनमें,
कि बातों से डर जाए हैं ।
है छुई - मुई उनकी आदत,
छूने पर वो शर्माए हैं ।।

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