14/11/2016

चलती लाश

मरे आदमी औरत टूटी
बुझता गया उजास
रोज़ मुझे दिख जाती है
सड़कों पे चलती लाश

काट दिये हैं सारे उपवन
तड़प रहा हूँ मैं ,मेरा मन
बिलकुल सूनसान ,निर्जन वह
खाली पड़ा अकाश

जला नहीं अब तक घर चूल्हा
टूट गया है चल चल कूल्हा
रहे बांटते बिजली, पानी
फिर भी बुझी न प्यास

बच्चे ऐसा सिला दिये हैं
मिट्टी में सब मिला दिये हैं
रहें ख़ुशी से हरदम प्यारे
वो करती उपवास

आज लगा कि स्थिर हूँ मैं
आँख में उनके गहन तिमिर मैं
बच्चों के सुख की ख़ातिर ,
अब ले लूँ मैं सन्यास

लूला लंगड़ा काना है वो
बच्चा नहीं सयाना है वो
उससे दुर्व्यवहार करें
करते उसका उपहास

पेट पीठ पाषाण हुये हैं
कोई लघु परिमाण हुये हैं
हैं  अनाज न खेत में
चक्की रही उदास

तरुणाई भी न आ पाई
दर्द बहुत लोगों से पाई
मेरी मुनिया मर गई
तड़प तड़प कर आज

मस्त रहा है वो अपने में
बिखरे कुछ टूटे सपने में
''नील'' धरा का बैरागी है
रही न कोई आश   

3 comments:

Unknown said...

वाह क्या कविता है ,
हर लाइन आज के यथार्थ को उद्बोधित करती हुई ।।
अद्भुत कविता ।।

Poetry With Neel said...

धन्यवाद राहुल भइया ।

Unknown said...

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