22/11/2016

उजड़ा घर

जितना उड़ पाओ उड़ लो तुम
दो पल के जगजीवन में
औंधे मुँह गिर जाओगे
फिर उसी किसानी भोजन में

गहन अँधेरे में आँखें
आखिर कैसे खुल पाएँगी
सपने जैसे टूटेंगे
फिर रोएँगी ,चिल्लाएंगी

बाजारों से भोजन लाओ
घर में न इक दाना है
पानी लाने अम्मा के संग
बहुत दूर तक जाना है

बहन हमारी छोटी सी
क्यों ? रोती है,चिल्लाती है
मुँह में मिट्टी डाल ,उसे
क्यों ?कूँच कूँच के खाती है

पिता गए बाजार वहाँ से
कुछ तो वो लाते होंगे
रो मत बहना !धीरज रख
अब साँझ हुई आते होंगे

जब तक लाते बाजारों से
चक्कर आया गिरी उधर
मेरी प्यारी भोली बहना
गई हाँथ में मेरे मर

पिता देख तड़पा ,चिल्लाया
बोला बेटी खाले तू
उठ उठ बैठ मेरी बिटिया
थोड़ा सा भोजन पाले तू

नहीं किया भोजन भाई भी
सारा दिन वह रहा उदास
सर्दी ,सर्द हवा से वह,सब
छोड़ चला बहना के पास

कैसे दिल आशीष तुम्हें दे
बच्चों के हत्यारे तुम
मेरे बेटे कहाँ गये
जीवन के चाँद सितारे तुम

माता-पिता अधीर हुए
दोनों नें आज लिया सल्फ़ास
आज गरीबी नें कर दी है
चार चार लोगों को लाश

हाँथ जोड़कर प्यारी बातें
घर घर वो बतियाते हैं
'मेक इंडिया' कहने वाले
कब तबके में आते हैं

2 comments:

Unknown said...

वाकई शानदार कविता
आज के यथार्थ को प्रस्तुत करती हुई ।।
ये तो सच है कि पेट तो किसानी भोजन ही भरता है
बाकी हम कहीं भी कितना भी खाएँ पेट नही भरता ।।
बहुत अच्छे बेहतरीन कविता ।।

Unknown said...

ग्रामीण समाज के अत्यन्त दुःखमय दृश्य को पङ्कतियों के माध्यम से यथार्थ रूप में चित्रित करने वाले इस युवा कवि का मैं हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ।

रामराज कै रहा तिरस्कृत रावणराज भले है!

देसभक्त कै चोला पहिने विसधर नाग पले है रामराज कै रहा तिरस्कृत रावणराज भले है ।। मोदी - मोदी करें जनमभर कुछू नहीं कै पाइन बाति - बाति...